सुभाषितानि = सु +भाषित = सुन्दर वचन
ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यम्
भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात् ।
उस प्राण स्वरुप, दुःख नाशक, सुख स्वरुप, श्रेष्ठ, तेजस्वी, पाप नाशक , देव स्वरुप परमात्मा को हम अंतरात्मा में धारण करें | वह परमात्मा हमारी बुद्धि को सन्मार्ग में प्रेरित करें।
विरला जानन्ति गुणान् विरला: कुर्वन्ति निर्धने स्नेहम् ।
विरला: परकार्यरता: परदु:खेनापि दु:खिता विरला: ॥
कोई कोई ही दूसरों के गुणों को जानते हैं, कोई कोई ही गरीबों से स्नेह रखते हैं, कोई कोई दूसरों की सहायता करते हैं और कोई कोई ही दूसरों के दुःख से दुखी होते हैं।
नाहं वसामि वैकुंठे योगिनांहृदये न च। 
मद्भक्ता यत्र गायंति यत्र तिष्ठामि नारद॥
हे नारद! मैं न तो बैकुंठ में ही रहता हूँ और न योगियों के हृदय में ही रहता हूँ। मैं तो वहीं रहता हूँ, जहाँ प्रेमाकुल होकर मेरे भक्त मेरे नाम का कीर्तन किया करते हैं।
शैले शैले न माणिक्यं मौक्तिकं न गजे गजे ।
साधवो न हि सर्वत्र चन्दनं न वने वने ॥
सभी पर्वतों में मणियाँ नहीं होतीं, सभी हाथियों के मस्तक मेंमोती नहीं होते, साधु पुरुष सभी स्थानों में नहीं मिलते औरचन्दन सभी वनों में नहीं पाया जाता है।
सत्यानुसारिणी लक्ष्मीः कीर्तिस्त्यागानुसारिणी ।
अभ्याससारिणी विद्या बुद्धिः कर्मानुसारिणी ॥
लक्ष्मी सत्य का अनुसरण करती हैं, कीर्ति त्याग का अनुसरण करती है, विद्या अभ्यास का अनुसरण करती है और बुद्धि कर्म का अनुसरण करती है।
षड् गुणा: पुरुषेणेह त्यक्तव्या न कदाचन ।
सत्यं दानम् अनालस्यम् अनसूया क्षमा धॄति: ॥
इस छःगुणों को व्यक्ति को कभी भी नहीं छोड़ना चाहिए - सत्य, दान, तत्परता, दूसरों में दोष न देखने की प्रवृत्ति, क्षमा और धैर्य।
षड् दोषा: पुरूषेणेह हातव्या भूतिमिच्छता ।
निद्रा तन्द्रा भयं क्रोध: आलस्यं दीर्घसूत्रता ॥
सम्पन्न होने की इच्छा वाले मनुष्य को इन छः बुरी आदतों को त्याग देना चाहिए - (अधिक) नींद, जड़ता, भय, क्रोध, आलस्य और कार्यों को टालने की प्रवृत्ति।
नमन्ति फलिता वृक्षा नमन्ति च बुधा जनाः ।
शुष्ककाष्ठानि मूर्खाश्च भिद्यन्ते न नमन्ति च ॥
फले हुए वृक्ष झुक जाते हैं और बुद्धिमान लोग विनम्र हो जाते हैं पर सूखी लकड़ी और मूर्ख काटने पर भी नहीं झुकते।
मृगा मृगैः संगमुपव्रजन्ति गावश्च गोभिस्तुरगास्तुरंगैः ।
मूर्खाश्च मूर्खैः सुधयः सुधीभिः समानशीलव्यसनेषु सख्यं ॥
मृग मृगों के साथ, गाय गायों के साथ, घोड़े घोड़ों के साथ, मूर्ख मूर्खों के साथ और बुद्धिमान बुद्धिमानों के साथ रहते हैं; समान आचरण और आदतों वालों में ही मित्रता होती है।
अर्थागमो नित्यमरोगिता च प्रिया च भार्या प्रियवादिनी च।
वश्यश्च पुत्रोऽर्थकारी च विद्या षड् जीवलोकस्य सुखानि राजन् ॥ 
हे महाराज.  धन की आय, नित्य आरोग्य, प्रिय और मधुर बोलने वाली पत्नी, आज्ञाकारी पुत्र और धन देने वाली विद्या, यह इस पृथ्वी के छः सुख कहे गए हैं।
आचारः परमो धर्म, आचारः परमं तपः।
आचारः परमं ज्ञानम्, आचरात् किं न साध्यते॥
सदाचरण सबसे बड़ा धर्म है, सदाचरण सबसे बड़ा तप है, सदाचरण सबसे बड़ा ज्ञान है, सदाचरण से क्या प्राप्त नहीं किया जा सकता है?
क्रोधो मूलमनर्थानां, क्रोधः संसारबन्धनम्।
धर्मक्षयकरः क्रोधः, तस्मात् क्रोधं विवर्जयेत् ।।
क्रोध समस्त विपत्तियों का मूल कारण है, क्रोध संसार बंधन का कारण है, क्रोध धर्म का नाश करने वाला है,  इसलिए क्रोध को त्याग दें।
मनसा चिन्तितंकार्यं, वचसा न प्रकाशयेत् ।
अन्यलक्षितकार्यस्य, यत: सिद्धिर्न जायते ॥ 
मन से सोचे हुए कार्य को वाणी से न बताए क्योंकि जिस कार्य पर किसी और की दृष्टि लग जाती है, वह फिर पूरा नहीं होता।
अष्टादशपुराणेषु, व्यासस्य वचनद्वयम् ।
परोपकारः पुण्याय, पापाय परपीडनम् ॥
अट्ठारह पुराणों में श्रीव्यास के दो वचन (प्रमुख) हैं - परोपकार से पुण्य होता है और पर-पीड़ा से पाप।
केयूरा न विभूषयन्ति पुरुषं हारा न चन्द्रोज्ज्वलाः 
न स्नानं न विलोपनं, न कुसुमं नालङ्कृता मूर्धजाः
वाण्येका समलङ्करोति पुरुषं, या संस्कृता र्धायते, 
क्षीयन्ते खलु भूषणानि सततं, वाग्भूषणं भूषणम्॥
चन्द्रमा के समान उज्ज्वल हार, न स्नान, न चन्दन, न फूल और न सजे हुए केश ही शोभा बढ़ाते हैं । केवल सुसंस्कृत प्रकार से धारण की हुई एक वाणी ही उसकी सुन्दर प्रकार से शोभा बढ़ाती है । साधारण आभूषण नष्ट हो जाते हैं, वाणी ही सनातन आभूषण है ॥
दानेन तुल्यं सुहृदास्ति नान्यो, लोभाच्च नान्योऽस्ति रिपुः पृथिव्याम् ।
विभूषणं शीलसमं न चान्यत् , सन्तोषतुल्यं धनमस्ति नान्यत् ॥
दान के समान अन्य कोई सुहृद नहीं है और पृथ्वी पर लोभ के समान कोई शत्रु नहीं है । शील के समान कोई आभूषण नहीं है और संतोष के समान कोई धन नहीं है।
न धैर्येण विना लक्ष्मी- र्न शौर्येण विना जयः ।
न ज्ञानेन विना मोक्षो, न दानेन विना यशः ॥
धैर्य के बिना धन, वीरता के बिना विजय, ज्ञान के बिना मोक्ष और दान के बिना यश प्राप्त नहीं होता है।
नरस्याभरणं रूपं, रूपस्याभरणं गुणः ।
गुणस्याभरणं ज्ञानं, ज्ञानस्याभरणं क्षमा ॥
मनुष्य का आभूषण रूप, रूप का आभूषण गुण, गुणों का आभूषण ज्ञान और ज्ञान का आभूषण क्षमा है।
विद्या बन्धुजनो विदेशगमने, विद्या परा देवता! 
विद्या राजसु पूज्यन्ते, विद्याविहिनं पशुः!!
विदेश जाने पर विद्या मित्र होती है , विद्या देवताओं मे श्रेष्ठ है ! राजा भी विद्वान कि पूजा करते हैं धन की नही ! विद्या से विहीन मनुष्य पशु जैसा ही लाचार है!!
न चौर्यहार्यं न च राजहार्यं, न भ्रातृभाज्यं न च भारकारि।
विदेश जाने पर विद्या मित्र होती है , विद्या देवताओं मे श्रेष्ठ है ! राजा भी विद्वान कि पूजा करते हैं धन की नही ! विद्या से विहीन मनुष्य पशु जैसा ही लाचार है!!
न चौर्यहार्यं न च राजहार्यं, न भ्रातृभाज्यं न च भारकारि।
व्यये कृते वर्धत एव नित्यं, विद्याधनं सर्व धनं प्रधानम।।
विद्या को न तो चोर चुरा सकता है, न राजा छीन सकता है, न भाई बांट सकता है, न तो कंधे पर इसका कोई बोझ ही महसूस होता है, खर्च करने पर तो विद्या उल्टा घटने के बजाय और बढ़ती ही रहती है, अतः विद्या सभी धनों में श्रेष्ठ है।
विद्या को न तो चोर चुरा सकता है, न राजा छीन सकता है, न भाई बांट सकता है, न तो कंधे पर इसका कोई बोझ ही महसूस होता है, खर्च करने पर तो विद्या उल्टा घटने के बजाय और बढ़ती ही रहती है, अतः विद्या सभी धनों में श्रेष्ठ है।
पुस्तकस्था तु या विद्या, पर हस्तम गतम धनं। 
कार्यकाले समुत्पन्ने, न सा विद्या न ततधनम।।
किताब में निहित विद्या और दूसरे के हाथ में चला गया धन, आवश्यकता के समय किसी काम के नहीं होते, कोई मदद नहीं करते, अतः किताब पढ़कर विद्या तैयार कर लेनी चाहिए और यदि कोई उधार लिया हो तो उससे अपना धन शीघ्र वापस ले लेना चाहिए।
नाभिषेको न संस्कारः सिन्हस्य् क्रियते वने !
किताब में निहित विद्या और दूसरे के हाथ में चला गया धन, आवश्यकता के समय किसी काम के नहीं होते, कोई मदद नहीं करते, अतः किताब पढ़कर विद्या तैयार कर लेनी चाहिए और यदि कोई उधार लिया हो तो उससे अपना धन शीघ्र वापस ले लेना चाहिए।
नाभिषेको न संस्कारः सिन्हस्य् क्रियते वने !
विक्रमार्जित सत्वस्य , स्वयमेव मृगेंद्रयाः !!
जङ्गल मे शेर का कोई अभिषेक या संस्कार नही किया जाता , अपने स्वयं के परिश्रम से अर्जित प्रशिद्धि से हि उसे मृगेन्द्र कहा जाता है !
न कश्चित् कश्यचित्मित्रं , न कश्चित् कश्यचिद् रिपुः!
जङ्गल मे शेर का कोई अभिषेक या संस्कार नही किया जाता , अपने स्वयं के परिश्रम से अर्जित प्रशिद्धि से हि उसे मृगेन्द्र कहा जाता है !
न कश्चित् कश्यचित्मित्रं , न कश्चित् कश्यचिद् रिपुः!
व्यवहारेन हि जायन्ते , मित्रश्च रिपवस्तथा !!
कोई किसी का मित्र या शत्रु पहले से नही होता अपितु हमारे व्यवहार से ही मित्र या शत्रु पैदा हो जाते हैं!
पिबन्ति नद्यः स्वयमेव नाम्भः स्वयं न खादन्ति फलानि वृक्षाः। नादन्ति सस्यं खलु वारिवाहाः परोपकाराय सतां विभूतय:।।
नदियाँ अपना पानी खुद नहीं पीती, वृक्ष अपने फल खुद नहीं खाते, बादल अपने वर्षा जल से सींचकर उगाया हुआ अनाज स्वयं नहीं खाते । इसी प्रकार सत्पुरुषों का जीवन परोपकार के लिए ही होता है ।
इसी प्रकार से एक दोहा भी है:
वृक्ष कब हु नहि फल भखे, नदी न संचय नीर। परमार्थ के कारण साधून धरा शरीर।।
मतलब की वृक्ष कभी अपना फल खुद नहीं खाते हैं और न ही नदियां अपना जल स्वयं पीती हैं। ये सब वे दूसरों के लिए ही करते हैं। ठीक इसी प्रकार एक साधु या सज्जन व्यक्ति सब कुछ दूसरों की भलाई के लिए ही करते हैं। यही उनका लक्ष्य होता है।
काव्यशास्त्र विनोदेन, कालो गच्छति धीमताम्। व्यसनेन च मूर्खाणां, निद्रया कल्हेनवा।।
बुद्धिमान लोगों का समय पढ़ने पढ़ाने में लगा रहता है। इसके विपरीत मूर्खों का समय सोने व झगड़ा करने में।
निन्दन्ति नीति निपुणाः यदि वा स्तवन्तु, लक्ष्मीः समाविसतु, गच्छतु वा यथेष्टम। अद्यैव मरणमस्तु यदि वा युगांतरेवा। नयायात्पथ् प्रविचलन्ति पदम् न धीराः।
नियम कानून जानने वाले प्रशंसा करें या निंदा करें, धन आये या चला जाये जैसी उसकी ईक्षा, आज ही मर जाएँ या बहुत दिनों बाद, परन्तु एक धैर्यवान व्यक्ति के पैर न्याय के रास्ते से नहीं डगमगाते।
प्रिय वाक्य प्रदानेन, सर्वे तुष्यन्ति जन्तवः। तस्मात् प्रियम् हि वक्तव्यम्, वचने का दरिद्रता।।
प्रिय वाक्य बोलने से ही जब सभी खुश हो जाते हैं, तो प्रिय बोलने के लिए मधुर वचनों की दरिद्रता कैसी?
धनधान्य प्रयोगेषु विद्यायाः संग्रहेषु च, आहारे वयवहारे च, त्यक्त लज्जः सुखी भवेत्।
धन वैभव का उपयोग करे और विद्या को इकठ्ठा करे, किसी से मिलने, बात करने में लजाये नहीं, ऐसा मनुष्य सुखी होता है।
पृथिव्यां त्रीणि रत्नानि जलं अन्नं सुभाषितं । मूढैः पाषाणखण्डेषु रत्न संज्ञा विधीयते।।
पृथ्वी पर तीन रत्न हैं : जल, अन्न और सुन्दर बोली। पर मुर्ख तो पत्थरों के टुकड़ों से मिलने वाले हीरे आदि को ही रत्न मानते हैं।
साहित्यसंगीतकलाविहीनः साक्षात्पशुः पुच्छविषानहीनः। तृणं न खादन्नपि जीवमानः, तदभागधेयं परमं पशूनां।
जो पढ़ा न हो , जिसे संगीत न आये या कोई कलाकारी न आये वो मनुष्य साक्षात् पशु जैसा ही है जिसमें बस सींग पूंछ न हो और घासफूस नहीं खाता है। भाग्य से वो मनुष्य तो बना पर पशु उससे अच्छे हैं।
अलसस्य कुतो विद्या, अविद्यस्य कुतो धनम्। अधनस्य कुतो मित्रम्, अमित्रस्य कुतो सुखम् ॥
आलसी को विद्या नहीं मिलती और जिसके पास विद्या नहीं हो वह धन नहीं पाता। भला निर्धन का कौन मित्र बनता है और जिसका कोई मित्र ही नहीं, उसे सुख कहा मिलेगा।
सुखार्थिन: त्यजते विद्यां, विद्यार्थिन: त्यजते सुखम्। सुखार्थिन: कुतो विद्या, विद्यार्थिन: कुतो सुखम् ॥
सुख की इच्छा वाले को विद्या छोड़ देनी चाहिए, इसी तरह विद्या के इच्छुक को सुख त्याग देना चाहिए. सुख चाहने वाले को विद्या कहाँ और विद्या चाहने वाले को सुख कहाँ?
मातॄवत्परदारेषु, परद्रव्येषु च लोष्ठवत्। आत्मवत्सर्वभूतेषु, य: पश्यति सः पण्डित: ।।
दूसरे की स्त्री को माँ के समान और दूसरे के धन का जो लालच नहीं करता, सभी प्राणियों को अपने जैसा ही महसूस करना, इस तरह से जो देखे समझे वही विद्वान है।
जलबिन्दुनिपातेन, क्रमशः पूर्यते घटः। स हेतुः सर्वविद्यानां, धर्मस्य च धनस्य च॥
जल के बूंदों के लगातार गिरते रहने से धीरे धीरे घड़ा भर जाता है। ठीक इसी प्रकार थोड़ा थोड़ा बढ़ाते रहने से विद्या, धर्म तथा धन भी बढ़ जाते हैं।
यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते, रमन्ते तत्र देवताः। यत्रैतास्तु न पूज्यन्ते, सर्वास्तत्राफलाः क्रियाः॥
जहाँ नारियों का सम्मान होता है वह जगह स्वर्ग लगती है। परन्तु जहाँ नारियों का अपमान होता है वहां के सभी कर्म बुरा फल ही देते हैं।
विद्या ददाति विनयं, विनयाद् याति पात्रताम्। पात्रत्वाद्धनमाप्नोति, धनाद्धर्मं ततः सुखम् ॥
विद्या विनम्रता देती है , विनम्रता से किसी कार्य को करने का गुण आता है। गुणी हो जाने से धन मिलने लगता है। धनी होकर मनुष्य धर्म कार्य करता है और बहुत आनंद महसूस करता है।
शोको नाशयते धैर्यं, शोको नाशयते श्श्रितम। शोको नाशयते सर्वं, नास्ति शोकसमो रिपूः॥
शोक धैर्य का नाश करता है, शोक स्मृति का नाश करता है, शोक सबका नाश करता है, शोक के समान दूसरा कोई शत्रु नहीं हैI
सर्वं परवशं दु:खं, सर्व आत्मवशं सुखम् । एतद् विद्यात् समासेन, लक्षणं सुखदु:खयो:॥
पराधीन के लिए सर्वत्र दुःख है और स्वाधीन के लिए सर्वत्र सुख है। यही संक्षेप में सुख और दुःख के लक्षण हैं॥
कोई किसी का मित्र या शत्रु पहले से नही होता अपितु हमारे व्यवहार से ही मित्र या शत्रु पैदा हो जाते हैं!
पिबन्ति नद्यः स्वयमेव नाम्भः स्वयं न खादन्ति फलानि वृक्षाः। नादन्ति सस्यं खलु वारिवाहाः परोपकाराय सतां विभूतय:।।
नदियाँ अपना पानी खुद नहीं पीती, वृक्ष अपने फल खुद नहीं खाते, बादल अपने वर्षा जल से सींचकर उगाया हुआ अनाज स्वयं नहीं खाते । इसी प्रकार सत्पुरुषों का जीवन परोपकार के लिए ही होता है ।
इसी प्रकार से एक दोहा भी है:
वृक्ष कब हु नहि फल भखे, नदी न संचय नीर। परमार्थ के कारण साधून धरा शरीर।।
मतलब की वृक्ष कभी अपना फल खुद नहीं खाते हैं और न ही नदियां अपना जल स्वयं पीती हैं। ये सब वे दूसरों के लिए ही करते हैं। ठीक इसी प्रकार एक साधु या सज्जन व्यक्ति सब कुछ दूसरों की भलाई के लिए ही करते हैं। यही उनका लक्ष्य होता है।
काव्यशास्त्र विनोदेन, कालो गच्छति धीमताम्। व्यसनेन च मूर्खाणां, निद्रया कल्हेनवा।।
बुद्धिमान लोगों का समय पढ़ने पढ़ाने में लगा रहता है। इसके विपरीत मूर्खों का समय सोने व झगड़ा करने में।
निन्दन्ति नीति निपुणाः यदि वा स्तवन्तु, लक्ष्मीः समाविसतु, गच्छतु वा यथेष्टम। अद्यैव मरणमस्तु यदि वा युगांतरेवा। नयायात्पथ् प्रविचलन्ति पदम् न धीराः।
नियम कानून जानने वाले प्रशंसा करें या निंदा करें, धन आये या चला जाये जैसी उसकी ईक्षा, आज ही मर जाएँ या बहुत दिनों बाद, परन्तु एक धैर्यवान व्यक्ति के पैर न्याय के रास्ते से नहीं डगमगाते।
प्रिय वाक्य प्रदानेन, सर्वे तुष्यन्ति जन्तवः। तस्मात् प्रियम् हि वक्तव्यम्, वचने का दरिद्रता।।
प्रिय वाक्य बोलने से ही जब सभी खुश हो जाते हैं, तो प्रिय बोलने के लिए मधुर वचनों की दरिद्रता कैसी?
धनधान्य प्रयोगेषु विद्यायाः संग्रहेषु च, आहारे वयवहारे च, त्यक्त लज्जः सुखी भवेत्।
धन वैभव का उपयोग करे और विद्या को इकठ्ठा करे, किसी से मिलने, बात करने में लजाये नहीं, ऐसा मनुष्य सुखी होता है।
पृथिव्यां त्रीणि रत्नानि जलं अन्नं सुभाषितं । मूढैः पाषाणखण्डेषु रत्न संज्ञा विधीयते।।
पृथ्वी पर तीन रत्न हैं : जल, अन्न और सुन्दर बोली। पर मुर्ख तो पत्थरों के टुकड़ों से मिलने वाले हीरे आदि को ही रत्न मानते हैं।
साहित्यसंगीतकलाविहीनः साक्षात्पशुः पुच्छविषानहीनः। तृणं न खादन्नपि जीवमानः, तदभागधेयं परमं पशूनां।
जो पढ़ा न हो , जिसे संगीत न आये या कोई कलाकारी न आये वो मनुष्य साक्षात् पशु जैसा ही है जिसमें बस सींग पूंछ न हो और घासफूस नहीं खाता है। भाग्य से वो मनुष्य तो बना पर पशु उससे अच्छे हैं।
अलसस्य कुतो विद्या, अविद्यस्य कुतो धनम्। अधनस्य कुतो मित्रम्, अमित्रस्य कुतो सुखम् ॥
आलसी को विद्या नहीं मिलती और जिसके पास विद्या नहीं हो वह धन नहीं पाता। भला निर्धन का कौन मित्र बनता है और जिसका कोई मित्र ही नहीं, उसे सुख कहा मिलेगा।
सुखार्थिन: त्यजते विद्यां, विद्यार्थिन: त्यजते सुखम्। सुखार्थिन: कुतो विद्या, विद्यार्थिन: कुतो सुखम् ॥
सुख की इच्छा वाले को विद्या छोड़ देनी चाहिए, इसी तरह विद्या के इच्छुक को सुख त्याग देना चाहिए. सुख चाहने वाले को विद्या कहाँ और विद्या चाहने वाले को सुख कहाँ?
मातॄवत्परदारेषु, परद्रव्येषु च लोष्ठवत्। आत्मवत्सर्वभूतेषु, य: पश्यति सः पण्डित: ।।
दूसरे की स्त्री को माँ के समान और दूसरे के धन का जो लालच नहीं करता, सभी प्राणियों को अपने जैसा ही महसूस करना, इस तरह से जो देखे समझे वही विद्वान है।
जलबिन्दुनिपातेन, क्रमशः पूर्यते घटः। स हेतुः सर्वविद्यानां, धर्मस्य च धनस्य च॥
जल के बूंदों के लगातार गिरते रहने से धीरे धीरे घड़ा भर जाता है। ठीक इसी प्रकार थोड़ा थोड़ा बढ़ाते रहने से विद्या, धर्म तथा धन भी बढ़ जाते हैं।
यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते, रमन्ते तत्र देवताः। यत्रैतास्तु न पूज्यन्ते, सर्वास्तत्राफलाः क्रियाः॥
जहाँ नारियों का सम्मान होता है वह जगह स्वर्ग लगती है। परन्तु जहाँ नारियों का अपमान होता है वहां के सभी कर्म बुरा फल ही देते हैं।
विद्या ददाति विनयं, विनयाद् याति पात्रताम्। पात्रत्वाद्धनमाप्नोति, धनाद्धर्मं ततः सुखम् ॥
विद्या विनम्रता देती है , विनम्रता से किसी कार्य को करने का गुण आता है। गुणी हो जाने से धन मिलने लगता है। धनी होकर मनुष्य धर्म कार्य करता है और बहुत आनंद महसूस करता है।
शोको नाशयते धैर्यं, शोको नाशयते श्श्रितम। शोको नाशयते सर्वं, नास्ति शोकसमो रिपूः॥
शोक धैर्य का नाश करता है, शोक स्मृति का नाश करता है, शोक सबका नाश करता है, शोक के समान दूसरा कोई शत्रु नहीं हैI
सर्वं परवशं दु:खं, सर्व आत्मवशं सुखम् । एतद् विद्यात् समासेन, लक्षणं सुखदु:खयो:॥
पराधीन के लिए सर्वत्र दुःख है और स्वाधीन के लिए सर्वत्र सुख है। यही संक्षेप में सुख और दुःख के लक्षण हैं॥
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